सकुच भरे अधखिले सुमनमें छिपकर रहता प्रेम पराग लीरिक्स
Sakuch Bhare Adhakhile Sumanamen Chhipakar Rahata Prem Paraag Lyrics
सकुच भरे अधखिले सुमनमें छिपकर रहता प्रेम-पराग ।
नव-दर्शनमें मुग्ध प्राणका होता मूक मधुर अनुराग ॥
भय-लजा, संकोच-सहम, सहसा वाणीका निपट निरोध ।
वाचा-रहित, नेत्र-मुख अवनत, हास्यहीन, बालकवत् क्रोध ॥ १ ॥
जो उसने था किया, इसी स्वाभाविक रसका ही ब्यवहार ।
तो देना था तुम्हें चाहिये उसे हर्षसे अपना प्यार ||
हृदयंगम करना आवश्यक था वह सरल प्रणयका भाव ।
नहीं तिरस्कृत करना था नव- प्रेमिकका वह गूँगा चाव ॥ २ ॥
प्रथम मिलनमें ही क्या समुचित है समस्त संकोच-विनाश ।
क्या उससे वस्तुतः नहीं होता नबीन मधु-रसका नाश ।॥
नव कलिकाके लिये चाहना असमयमें ही पूर्ण विकास ।
क्या है र्नाहं अप्राकृत और असंगत उससे ऐसी आस ॥ ३ ॥
क्या नववधू कभी मुखरा बन कर सकती प्रियसे परिहास ।
क्या वह मूर्खा या संदिग्धा बन सह सकती मिथ्या त्रास ।।
क्या वह प्रौढ़ा सदृश खोल अवगुंठन कर सकती रस-भंग।
क्या बहने देती, मर्यादा तजकर, सहसा हास्य-तरंग || ४ ॥
क्या ‘मूक।स्वादनवत्’ होता नहीं प्रेमका असली रूप।
क्या उसमें है नहीं छलकता प्रेम-पयोधि गंभीर अनूप ॥
क्या है नहीं प्रसन्न इष्टको मानस-पूजा ही करती ।
क्या वह नहीं बाह्य पूजासे बढ़कर इष्ट-हृदय हरती ॥ ५ ॥
यदि नव प्रेमिकने तुमको पूजा केवल मनसे ही नाथ।
स्तंभित, कंपित, मुग्ध हर्षसे कह-सुन कुछ भी सका न साथ ।।
क्या इससे हे प्रेमिकवर ! प्रभु ! हुआ तुम्हारा कुछ अपमान ।
क्या इसमें अपराध मानते सरल भक्तका ? हे भगवान ॥ ६ ॥
यदि ऐसा है नहीं देव ! तो क्यों फिर होते अंतर्द्धान ।
क्यों दर्शनसे वंचित करते, क्यों दिखलाते इतना मान ॥
क्यों आँखोंसे ओझल होते, पता नहीं क्यों बतलाते ।
क्यों भक्तोंको सुख पहुँचाने नहीं शीघ्र सम्मुख आते ॥ ७ ॥