इधर उधर क्यों भटक रहा मन
Idhar Udhar Kyon Bhatak Raha Man
इधर-उधर क्यों भटक रहा मन- भ्रमर, भ्रांत, उद्देश्यविहीन ।
क्यों अमूल्य अवसर जीवनका ब्यर्थ खो रहा तू, ‘मतिहीन ॥
क्यों कुत्रास-कंटकयुत बिषमय बिषय बेलिपर ललचाता ।
क्यों सहता आघात सतत क्यों दुःख निरंतर है पाता ।।
विश्व-बाटिकाके प्रति-पदपर भटक भले ही, हो अति दीन ।
खाकर ठोकर द्वार-द्वारपर हो अपमानित, हीन-मलीन ।
सह ले कुछ संताप और, यदि तुझको घ्यान नहीं होता।
दो निराश, निर्लज भ्रमण कर फिर चाहे खाते गोता ।।
बिषमय बिषय-बेलिको चाहे कमल समझकर हो रह लीन ।
चाहे जहर भरे भोगौको सलिल समझकर बन जा मीन ।।
पर न जहाँतक तुझे मिलेगा पावन प्रभु-पद-पद्म-पराग ।
होगा नहीं जहाँतक उसमें अनुपम तब अनन्य अनुराग ।।
कर न बुकेगा तू जबतक अपनेको, बस, उसके आधीन ।
होगा नहीं जहाँतक तू स्वर्गीय सरस सरसिज आसीन ।।
नहीं मिटेगा ताप वहाँतक, नहीं दूर होगी यह भ्रांति ।
नहीं मिलेगी शांति नहीं मिलेगी सुखप्रद भीषण श्रांति ॥
इससे हो सत्बर, सुन्दर हरि चरण-सरोरुहमें तल्लीन ।
कर मकरंद मधुर आस्वादन पापरहित हो पावन’ पीन ॥
भय-भ्रम-भेद त्यागकर, सुखमय सतत सुधारस कर तू पान ।
शांत-अमर हो, शरणद चरण- युगलका कर नित गुण-गण-गान ॥