सनातन सत चित आनंदा रूप
Sanaatan Sat Chit Aananda Roop
सनातन सत-चित-आनंदा रूप ।
अगुण, अज, अव्यय, अला, अनूवन्ना अगोचर, आदि, अनादि अपार ।
विश्व-व्यापक, विभु, विश्ववार न पाता जिनकी कोई थाह न बुद्धि-बल हो जाते गुमराह ।। १ ॥
संत श्रद्धालु, तर्क कर त्याग ।
सदा भजते मनके अनुराग ॥ २ ॥
समझकर विषवत् सारे भोग ।
त्याग, हो जाते स्वस्थ निरोग ॥
एक, बस, करते प्रियकी चाह ।
विचरते जगमें बेपरवाह ! ।। ३ ।।
घरा, धन, धाम, नाम, आराम ।
सभी कुछ राम विश्व-विश्राम ।।
देखते सबमें ऐसे भक्त ।
सतत रहते चिन्तन-आसक्त ।। ४ ।।
प्रेम-सागरकी तुंग तरंग ।
बाँध मर्यादाका कर भंग ।।
बहा ले जाती जब श्रुति-धार ।
संत तब करते प्रेम-पुकार ।। ५ ।।
प्रेमवश विद्युल हो श्रीराम ।
भक्त-मन-रक्षन अति अभिराम ॥
दिव्य मानब शरीरबर धार ।
अनोखा, लेते जग अवतार || ६ ||
मदन-मन-मोइन, मुनि-मन-हरण ।
सुरासुर सकल विश्व सुख-करण ॥
मधुर मञ्जुल मूरति युतिमान ।
विविध क्रीड़ा करते दयावश करते भगवान || ७ ||
जग-उद्धार । प्रेमसे, तथा किसीको मार ।।
विविध लीला विशाल शुचि चित्र ।
अलौकिक सुखकर सभी विचित्र || ८ ||
जिन्हें गा-सुनकर मोहागार ।
सहज तोड़ होते भव-वारिधि पार ।।
माया-बन्धन जग-जाल ।
देखते ‘सीय-राम’ सब काल ।। ९ ।।
वही सुन्दर मृदु युगल-स्वरूप ।
दिखाते रहो राम रघु-भूप ! ॥
‘सकल जग सीय-राममय’ जान ।
करूँ सबको प्रणाम, तज मान ॥१०॥