हरि को हरि जन अतिहि पियारे
Hariko Hari Jan Atihi Piyaare
हरिको हरि जन अतिहि पियारे ।
हरि हरि-जनतें भेद न राखें, अपने सम करि डारें ।।
जाति-पाँति, कुल-धाम, घरम-धन, नहि कछु बात विचारें।
जेहि मन हरि-पद-प्रेम अद्वैतुक, तेहि ढिग नेम बिसारें ।।
व्याध, निषाद, अजामिल, गनिका, केते अधम उधारे।
करि खग-बानर-भालु-निसाचर, प्रेम-बिवस, सब तारे ।।
परस्ति प्रेम, हिय हरखि राम मिलनीके भवन पधारे।
बारहि बार खात जूठे फल, रहे सराहत हारे ।।
विदुर-घरनि सुधि बिसरी तनकी, स्याम जवहिं पगु ध. रे।
कदली-फलके छिलका खाये, प्रेममगन मन भारे ।।
रे मन ! ऐसे परम प्रेममय हरिको मत बिसरा रे ।
प्रभुके पद-सरोज-रस चाखन, तू मधुकर बनि जा रे ।।