रश्मिरथी – तृतीय सर्ग – भाग 4 | Rashmirathi Third Sarg Bhaag 4

यह अंश रश्मिरथी के तीसरे सर्ग का अत्यंत शक्तिशाली और मार्मिक भाग है, जिसमें कर्ण का अद्भुत आत्मगौरव, उसका आंतरिक तेज और दुर्योधन के प्रति उसकी अटल निष्ठा दर्शायी गई है। यह खंड तब आता है जब कर्ण दुर्योधन की सभा में खड़ा होकर अपने निर्णय की घोषणा करता है

रश्मिरथी – तृतीय सर्ग – भाग 4 | Rashmirathi Third Sarg Bhaag 4

शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
शत कोटि दण्डधर लोकपाल।

जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।

भूलोक, अतल, पाताल देख,
गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,
यह देख, महाभारत का रण,

मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, कहाँ इसमें तू है।

अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
मेरा स्वरूप विकराल देख।

सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।

जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
हँसने लगती है सृष्टि उधर!

मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
छा जाता चारों ओर मरण।

बाँधने मुझे तो आया है,
जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
पहले तो बाँध अनन्त गगन।

सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?

हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।

याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।

टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
बरसेगी भू पर वहि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,
विकराल काल मुँह खोलेगा।

दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
फिर कभी नहीं जैसा होगा।

‘भाई पर भाई टूटेंगे,
विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।

आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।’

थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर ना अघाते थे,
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।

कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय,
दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’!

इस पूरे अंश में कर्ण एक महासमर के उद्घोषक के रूप में उभरता है।

  • वह अपनी दिव्यता, विराटता और आत्मबल का परिचय देता है।
  • वह युद्ध को एक धार्मिक और ब्रह्मांडीय युद्ध का रूप देता है।
  • उसका भाषण सिर्फ क्रोध नहीं, दर्शन, भविष्यवाणी, चेतावनी और चुनौती से भरा है।
  • यह भाग महाभारत के युद्ध के लिए भूमिका है — और कर्ण के चरित्र की सर्वोच्च ऊँचाई है।

यह भाग न केवल साहित्यिक दृष्टि से, बल्कि दर्शन और मनोविज्ञान की दृष्टि से भी एक महाकाव्य की तरह प्रभावशाली है।

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